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Thursday 26 March 2020

PRACTICAL TRANSLATION EXERCISE - 15 (26-03-2020)


PRACTICAL TRANSLATION EXERCISE - 15 (26-03-2020)


Exiting of U.S. from the accord may encourage other countries to do the same with a potential increase in emissions, particularly from coal in case of those nations not having abundant available resources of natural gas or other alternatives.
The US has dealt a serious blow to global efforts in combating climate change by pulling out of this international agreement. This might be a political decision by President Trump, but that seems to bring no change in the science of how our planet works. He has also made it clear that during the time frame of agreement entering into force and U.S. withdrawing from it; the U.S. won’t honour the commitment to emission reductions which has been made under the Obama administration.


The Paris Agreement is all about the 2 degrees target, which needs to be maintained in comparison to temperatures pre-industrial revolution by the end of the century. That is the global average temperature should be controlled from rising from 2 degrees Celsius.

Beyond this mark, we risk to face radically higher seas, food and water crises, change in weather patterns and an overall more hostile world.

The agreement, however, doesn’t detail how exactly the countries are going to accomplish this 2-degree goal. It however provides a framework for getting momentum on greenhouse reduction. It focuses on sight and accountability.

The pledge for U.S. involves reductions of 26 to 28 per cent by 2025. By 2020, delegates will have to reunite and provide updates about their emission pledges and report on how progressively they intend to accomplish this goal.

The accord asks richer countries to help poor countries owing to the fact that there is a fundamental inequality when global emissions are considered. As huge amounts of fossil fuels have been plundered and burned by rich and developed countries and the poor countries are being shunned from using the same fuels; it clearly places the latter in a much disadvantaged position. The low-lying poor countries are also among the first ones to bear the brunt of climate change.

As part of this agreement, richer and developed countries such as the U.S. have to help the poor countries with $100 billion a year and this amount is set to increase over time. But, this again isn’t an absolute mandate, i.e.; it’s voluntary.


(सुनील भुटानी)

लेखक-अनुवादक-संपादक-प्रशिक्षक 
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2 comments:

  1. (अभ्यास-15)
    यू.एस का इस समझौते से स्वयं को अलग कर लेना अन्य देशों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करेगा।जिससे ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि हो सकती है।मुख्यतः कोयले के इस्तेमाल से उत्सर्जित गैसों में उन देशों में वृद्धि हो सकती है जिनके पास गैसों के विपुल संसाधन या अन्य विकल्प मौजूद नहीं है।
    इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते से स्वयं को अलग करने पर यू.एस को पर्यावरण संकट से निपटने की दिशा में बडा़ आर्थिक दवाब झेलने को मिल सकता है । हो सकता है कि राष्ट्रपति ट्रंप के इस निर्णय के पीछे कुछ राजनीतिक कारण रहें हों परन्तु हमारे गृह की स्थिती से इसका कोई वैज्ञानिक संबंध नहीं जान पड़ता।ट्रंप ने यह भी साफ़ कर दिया कि जिस समय यह समझौता प्रभाव में आया था और जब यू.एस ने स्वयं को इससे अलग किया: यू.एस अब उत्सर्जन कम करने के उन संकल्पों को मानने के लिए बाधित नहीं होगा जो उसने ओबामा के कार्यकाल के दौरान इस समझौते में किए थे।
    पेरिस समझौते का एकमात्र उद्देश्य 2 डिग्री वैश्विक तापमान के लक्ष्य को पूरा करना ही है।जिससे इस सदी के अंत तक प्री-इंडस्ट्रीयल तापमान की तुलना में बरकरार बनाए रखना होगा।मतलब कि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेलशियस से अधिक बढ़ने से रोकना होगा।
    अगर हम इसे पार कर जाते है तो ,समुंद्र के स्तर में गंभीर वृद्धि हो सकती है ।साथ ही जल एवं खाद्य पदार्थों का संकट भी विश्व को सता सकता है।जलवायु समीकरणों में तीव्र और गंभीर बदलावों से पूरा विश्व संकट में पड़ सकता है।
    हालांकि ,यह समझौता भी इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि आखिर ये देश 2 डिग्री सेलशियस के अपने लक्ष्य को किस प्रकार पूरा करने वाले है।बहरहाल यह ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने को लेकर महत्वपूर्ण सुझाव जरूर देता है।यह वास्तविक स्थिती और देशों की जवाबदेही पर ज्यादा केंद्रित है।
    यू.एस के लिए इस संकल्प का मतलब 2025 तक 26 से 28 प्रतिशत तक की कमी करना है।2020 तक सभी देशों के प्रतिनिधियों को साथ आकर गैसों के उत्सर्जन से जुडे़ नए आंकडो़ं का विश्लेष्ण कर यह देखना होगा कि वे सार्थक प्रयास कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
    इस समझौते के तहत अमीर देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे गरीब देशों को सहयोग प्रदान करें।बल्कि इन देशों के बीच उत्सर्जन को लेकर भी साफ़ तौरपर एक बडा़ अंतर भी देखने को मिलता है।चूंकि अमीर और विकसित देशों के द्वारा जीवाश्म ईंधनों का अत्याधिक उपयोग और हनन् किया गया और गरीब देशों को इनके इस्तेमाल से वंचित रखा गया इसीलिए ये देश कई माईनों में पीछड़ भी गए।पर्यावरण बदलाव से जुडे़ संकटों के दुष्प्रभावों का सामना भी सबसे ज्यादा इन विकासशील देशों को ही करना पड़ रहा है।
    इस समझौते के तहत ,अमीर और विकसित देश जैसे कि यू.एस जैसे देशों को गरीब देशों की मदद् करनी होगी।सालाना 100 बिलियन डाॅलर की आर्थिक सहायता प्रदान करनी होगी,जिसे समय के साथ बढाया भी जा सकता है।लेकिन यह पूरी तरह से अनिवार्य नहीं है,अर्थात् यह पूर्णतः स्वैच्छिक है।

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  2. हाल ही का समझौता जलवायु परिवर्तन पर संयुक्‍त राष्‍ट्र रूपरेखा सम्‍मेलन के पक्षकार-सम्‍मेलन (सीओपी 21) के 21वें सत्र तक पहुंच गया था। यह एक ऐतिहासिक समझौता है जिसपर वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्‍तरों से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक तक सीमित रखने के लिए अमेरिका सहित 195 देशों से बातचीत की गई थी।
    जलवायु दृष्टिकोण के इस समझौते से अमेरिका के बाहर होने का महत्‍वपूर्ण संभावित प्रभाव पड़ेगा क्‍योंकि विश्‍व के ग्रीनहाऊस गैस उत्‍सर्जन में अमेरिका की हिस्‍सेदारी लगभग 20 प्रतिशत है। अतिरिक्‍त कार्बनडाइऑक्‍साइड से बर्फ की परतें तेज़ी से पिघल रही हैं जिससे समुद्रतल का स्‍तर तेज़ी से बढ़ रहा है। वैश्विक तापमान में इस लगातार वृद्धि से मौसम के तेज़ी से गरम और ठंडा दोनों होने की भी आशंका है।

    अमेरिका ने इस अंतर्राष्‍ट्रीय समझौते से बाहर होकर जलवायु परिवर्तन का सामना करने के वैश्विक प्रयासों को गहरा धक्‍का पहुंचाया है। यह राष्‍ट्रपति ट्रम्‍प द्वारा लिया गया एक राजनीतिक निर्णय हो सकता है, परन्‍तु ऐसा लगता है कि कैसे हमारा ग्रह कार्य करता है इस विज्ञान में कोई बदलाव आने वाला नहीं है। उन्‍होंने यह भी स्‍पष्‍ट किया है कि समझौता लागू होने की समयावधि के दौरान ही अमेरिका इससे अपने को अलग कर रहा है, अमेरिका उत्‍सर्जन कटौतियों के प्रति उस प्रतिबद्धता को पूरा नहीं करेगा जो ओबामा प्रशासन के अधीन की गई थी।

    पैरिस समझौता 2 डिग्री लक्ष्‍य के बारे में है, जिसे उस शताब्‍दी के समाप्‍त होने तक औद्योगिक क्रांति से पहले के तापमानों की तुलना में अनुरक्षित किए जाने की जरूरत है। वह वैश्विक औसत तापमान है जिसे 2 डिग्री सेल्सियस से बढ़ने से नियंत्रित किया जाना है।

    इस चिह्न के बाद, हमें मूलत: उच्‍चतर समुद्रों, खाने तथा पानी के संकट, मौसम के प्रतिरूपों (पैटर्नों) में बदलाव और समग्र रूप से ज्‍यादा शत्रुतापूर्ण विश्‍व का सामना करने का जोखिम है।

    तथापि, समझौते में ब्‍योरा नहीं दिया गया है कि कैसे वास्‍तव में इस 2 डिग्री लक्ष्‍य को पूरा करने जा रहे हैं। तथापि, यह ग्रीनहाऊस कटौती पर गति प्राप्‍त करने के लिए एक रूपरेखा उपलब्‍ध करवाता है। यह निशाने पर नज़र और जवाबदेही पर केंद्रित है।

    अमेरिका के लिए शपथ में 2015 तक 26 से 28 प्रतिशत कटौती करना शामिल है। वर्ष 2020 तक, प्रतिनिधियों को पुन: संगठित होना होगा और उनकी उत्‍सर्जन शपथों के बारे में अद्यतन जानकारी उपलब्‍ध करवानी होगी और बताना होगा कि कैसे वे इस लक्ष्‍य को पूरा करने के लिए प्रवृत्‍त हैं।

    यह समझौता अमीर देशों को इस कारण से गरीब देशों की मदद करने के लिए कहता है कि मूलभूत असमानता है जब वैश्विक उत्‍सर्जन पर विचार किया जाता है। चूंकि अमीर तथा विकसित देशों द्वारा भारी मात्रा में जीवाश्‍म ईंधनों की लूट की गई है और जलाया गया है तथा गरीब देशों को इन ईंधनों का उपयोग करने से दूर रखा जा रहा है, इससे स्‍पष्‍ट है कि बाद में बहुत ही नुकसानदायक स्थिति पैदा हुई है। सबसे निचले गरीब देशों को भी अमीर देशों की तरह जलवायु परिवर्तन का दंश झेलना पड़ रहा है।

    इस समझौते के हिस्‍से के रूप में, अमीर और विकसित देशों द्वारा अमेरिका को गरीब देशों की प्रतिवर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मदद करनी होगी और यह राशि आने वाले समय में बढ़ती जाएगी। परंतु, यह दोबारा एक अंतिम निर्णय नहीं है, अर्थात् यह इच्‍छानुसार है।

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