‘’रूद्राक्ष’’ के पाठकों की ओर से ... (1)
शिवानी अरोड़ा
वैश्वीकरण : वरदान या
अभिशाप?
(‘कोरोना-काल’ के विशेष संदर्भ में)
वर्ष 2020 में संपूर्ण विश्व पर
कहर बनकर टूटी इस वैश्विक महामारी ने 'वैश्वीकरण' पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। आज संपूर्ण विश्व के
लगभग 125 देश कोरोना वायरस का प्रकोप झेल रहे हैं। विश्व के सबसे विकसित देशों में
लाखों लोग इस महामारी की चपेट में हैं।
अर्थव्यवस्था की हालत भी नाजुक है। यह वर्ष
2008-2009 के आर्थिक संकट से भी बड़ा और अलग तरह का संकट है जिससे दुनिया संघर्ष कर
रही है। यह पूरी मानवता पर संकट का समय
है। यह एक ऐतिहासिक परिवर्तन का दौर भी है।
इस महामारी ने मानवीय जीवन के कई आयामों को बेनकाब कर दिया है। इस विश्वव्यापी प्रकोप के कारण आज
भूमंडलीकरण की अवधारणा प्रश्नों के दायरे में
है। कोरोना वायरस ने
भूमंडलीकरण का एक अलग और काफी
नकारात्मक पहलू उजागर कर दिया है।
वैसे तो वैश्वीकरण 'विश्व ग्राम'
की परिकल्पना से जुड़ा है। एकीकरण के रास्ते पर चलते हुए 'वसुधैव कुटुंबकम्' जैसी
पुनीत भावना का अनुसरण इसका उद्देश्य है। संचार माध्यमों के ज़रिए भौगोलिक दूरियों को दूर किया
गया, जिससे आज विश्व एक 'छोटे से गाँव' में तब्दील हो गया। मगर... ताज़ा हालात हमारे सामने
अब यह प्रश्न उठाते हैं
कि क्या 'विश्वग्राम' सच में एक सही विचार था? क्या मुक्त व्यापार और संचार करते
समय हमने कोई भूल तो नहीं कर दी? मौजूदा
भयावह स्थिति एक देश से दूसरे देश के बीच आसान आवागमन का परिणाम तो नहीं है? हम जानते हैं कि वैश्वीकरण का मुख्य उद्देश्य आर्थिक और व्यापारिक विकास की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ना
था। विकासशील और विकसित दोनों ही तरह के देशों के लिए 'ग्लोबलाइज़ेशन' और उदारीकरण का अपना एक
विशेष महत्व रहा है। इसने
विश्व के बड़े और छोटे
देशों को आपस में जोड़ने
का काम किया। बीसवीं
सदी में आदान-प्रदान का जो सिलसिला
शुरू हुआ उसने वैश्विक
तथा देशीय दोनों स्तरों पर
अभूतपूर्व आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक बदलाव
किए हैं। लेकिन, अब जैसे-जैसे वैश्वीकरण से
उत्पन्न पर्यावरण संकट, आतंकवाद, वैश्विक आपदाएं आदि जैसी अनेक समस्याएं सामने आ रही हैं वैसे-वैसे
एक बार दोबारा संरक्षणवादी सोच का उदय हो रहा है। आज हम एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर हैंं कि क्या सीमाओं से मुक्त संसार की रचना करने की 'ग्लोबल विलेज' अवधारणा
को बदलने का समय आ गया है? क्या अब समय आ चुका है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था से
अत्यधिक जुड़ाव छोड़ अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्था का स्वावलंबिक विकास किया
जाए? माल और इंसानी प्रतिभाओं के वैश्विक
स्तर पर आदान-प्रदान को रोका जाए? ये सभी
प्रश्न इसीलिए खड़े होते हैंं क्योकि कहीं-ना-कहीं कोरोना वायरस
के इतनी तेज़ी से विश्व स्तर पर फैलने के पीछे मुख्यतः यही कारण थे।
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यदि हम कोरोना वायरस की शुरुआत पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि इसकी शुरुआत 2019 के अंतिम महीनों में चीन के वुहान शहर से हुई थी। क्रिसमस, नववर्ष और फिर कई त्योहारों के अवसर पर यहाँ से लोगों का
आवागमन विश्व के कई देशों में हुआ और धीरे-धीरे कोरोना संक्रमण विश्व स्तर पर फैलने
लगा। कोरोना वायरस संक्रमण के विश्व के अनेक
देशों में फैलने के मुख्य कारण पर्यटन और व्यापारिक यात्राएं
रही हैं। विद्वानों ने स्थितियों का विश्लेषण करके पाया है कि आज जो देश इस महामारी
से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, वे उन प्रमुख
देशों से है जहाँ लोगों का सबसे ज्यादा आवागमन होता है। फ्रांस, स्पेन, अमेरिका, चीन और इटली लोगों
के सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थलों में से
हैं। इस के अलावा, शुरूआती आकड़ों पर नज़र डालने पर
हमें दिखाई देता है कि मात्र एक माह पहले कोरोना वायरस से प्रभावित देशों की सूची में एक ऐसा नाम भी
था जो असल में कोई देश नहीं था बल्कि एक क्रूज़ जलयान (समुद्री पर्यटन में
प्रयोग होने वाला विशालकाय जहाज) था।
यह क्रूज़ जलयान 'डॉयमंड प्रीसेज़' जापान से चला था
परन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.)
की
सलाह पर इसे 'क्वारेंटीन' कर दिया
गया
और उस समय इस पर तकरीबन 690 यात्री कोरोना वायरस से
संक्रमित मिले थे। इससे यह स्पष्ट है कि वैश्वीकरण से जो भौगोलिक दूरियां कम हुईं, लोगों और
देशों के बीच नजदीकियां आईं और इसी से संकट का विस्तार भी हुआ। डब्ल्यू.एच.ओ.
की
हिदायतों के बाद कई देशों ने अपने पड़ोसी देशों के साथ लगती सीमाएं बंद कर दी हैं। हवाई उडानो पर रोक लगी हुई है। व्यापारिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सम्मेलनों को स्थगित कर दिया गया है। कई खेल-प्रतियोगिताएं, सम्मेलन, संगोष्ठियों आदि को अनिश्चितकाल
के लिए टाल
दिया गया है। इस अंधाधुंध वैश्वीकरण का परिणाम यह निकला कि न सिर्फ देशों की सीमाएं बंद हुईं बल्कि लोग भी अपने घरों में
बंद होने को मजबूर
हो गए। इसीलिए, अब वैश्वीकरण के विरोध
में आवाज़ें बुलंद हो रही हैं। आज पूरी दुनिया एक ही दुविधा
से जूझ रही है। मौजूदा संकट की स्थिति विकट
होती जा रही है। कोई भी देश पूर्णतः तटस्थ रहकर विकास करने के बारे में भी नहीं सोच सकता, लेकिन वैश्वीकरण के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार
करता हुआ भी दिखाई नहीं देता है। यही स्थिति कोराना वायरस की जन्मस्थली कहे जाने वाले चीन के सामने भी
पेश आ रही है। चीन के गैर-जिम्मेदार रवैया का परिणाम आज पूरा विश्व भुगत रहा है। विश्व स्तर पर राजनीतिक गरमागरमी स्पष्ट
दिखाई दे रही है। लेकिन, एक-दूसरे पर आर्थिक निर्भरता इस हद तक बढ़ चुकी है कि वे आर-पार का फैसला करने की
स्थिति में नहीं है।
यदि आर्थिक
पहलुओं पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि
यह एक बहुत ही विस्तृत क्षेत्र है। कोरोना वायरस ने सभी पहलुओं को क्षति
पहुंचाई है। एक ओर जहां पर्यटन
खत्म हुआ तो वहीं अन्य
उद्योगों में भी एक प्रकार की स्थिरता आ गई। आज ना लोग काम पर जा रहे हैं, ना
शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं। यह पूरी मानव सभ्यता पर संकट बनकर उभरा है। मानवीय संवेदना का प्रश्न
सबसे अधिक गहराया है। अनेक
प्रवासियों से उनकी रोज़ी-रोटी छिन
गई है। एक नए
प्रकार का पूर्वाग्रह से
प्रभावित दृष्टिकोण उभर रहा है। कोरोना वायरस ने न केवल वैश्वीकरण की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगाया है अपितु विकास और
मानवता के बीच की चौड़ी होती खाई
को भी उजागर कर दिया है।
अब सवाल यही है कि क्या विकास और वैश्वीकरण मानव जाति
के लिए अभिशाप बन गए हैं? क्या कोरोना वायरस महामारी
हमारी आँखें नहीं खोल रही है? क्या मानव जाति के विकास के लिए वरदान मानी जाने वाली वैश्वीकरण की परिकल्पना का त्याग
करने का
समय आ गया है? यदि इन प्रश्नों
पर विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार करें तो हम
पाएंगे कि
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार
के संकटों से बचने का एकमात्र उपाय वैश्वीकरण का त्याग करना है। अपितु अब तो जरूरत है एक नए प्रकार
की वैश्वीकरण की अवधारणा विकसित की जाए। जी-20 देशों की वीडियो कांफ्रेंसिग
के माध्यम से हुई बातचीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने
भी कहा था कि अब समय आ चुका है जब एक मानवता पर केंद्रित
वैश्वीकरण की नई शुरुआत की
जाए। इस नई शुरूआत का मुख्य उदेश्य
आर्थिक विकास नहीं अपितु मानवीय विकास होना
चाहिए।
आज की जरूरत मानव और पर्यावरण दोनों को स्वस्थ
रखने और संघर्ष करते हुए मिलजुलकर विकास करने की है। भले ही कोरोना वायरस के कारण वैश्वीकरण-विरोधी आवाज़ बुलंद हो रही
हो, परंतु हमें यह भी समझना होगा कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.), अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) एवं विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की महत्वपूर्ण
भूमिका है। आज विश्व स्तर पर आपसी सहयोग को निरंतर बढाने की जरूरत है और स्वार्थ से परे 'संगठित विकास' पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। आज वैज्ञानिक,
प्रोद्योगिक विकास से पीछे हटने की नहीं बल्कि इनका उचित प्रयोग समझने की जरुरत है। आज जरुरत 'मानव-केंद्रित डिजिटल वैश्वीकरण' (हयूमन सेंटर्ड डिजिटलाइज्ड ग्लोबलाइजे़शन)
की आवश्यकता है। आज
सीमाओं को बंद करने की नहीं अपितु स्वच्छंद
आवागमन को संयमित करने की आवश्यकता है। कोरोना वायरस से आज विश्व जिस प्रकार संघर्ष कर रहा है, समाधान भी इसी
से निकल रहे हैं। आज
प्रौद्योगिकी (विडियोक्रांफेसिंग, इंटरनेट, मीडिया आदि) के माध्यम से सामाजिक दूरी
बनाते हुए भी वैश्विक समाज एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।
आज पूरा विश्व मानो थम सा गया है...मगर यह इसका
अंत नहीं। ये तो बस वो क्षण है जब प्रकृति हमें मौका दे रही है विचारने का कि क्या
हम सहीं तरह से आगे बढ़ रहे है? आज जरुरत विकास की ओर नया पथ तैयार करने की है। यदि हमें महसूस होता है कि कोरोना वायरस ने वैश्वीकरण को अभिशाप साबित किया है तो हमें
यह भी समझना होगा
कि परस्पर सहयोग के माध्यम से इस संकट
पर काबू पाकर हम इसे पुनः वरदान साबित
कर सकते हैं। यह समय
समझबूझ का है। अब हमें नई परिकल्पना और संकल्पना के साथ दुनिया का विकास
करना है। यह विकास यात्रा ‘स्वार्थ’ नहीं ‘परस्पर-सहयोग’ पर
आधारित होगी। आज वैश्वीकरण के मानवीय चेहरे को और अधिक महत्व देने का समय है।
मुझे विश्वास है कि मानव-जाति मानवीयतापूर्ण विकास की राह पर चलेगी जिसमें सृष्टि
के प्रत्येक छोटे-बड़े तत्वों का ध्यान रखा जाएगा।
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© शिवानी अरोड़ा
अनुवाद-प्रशिक्षु एवं लेखिका
[बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी; दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली]
ईमेल: shivanianshu603@gmail.com