स्वतंत्रता के लिए भारतीय संघर्ष की लंबी लड़ाई भारत के लोगों के सर्वोच्च बलिदान की गाथा है। शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ इस संघर्ष से जुड़े कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम थे। पहला मील का पत्थर 1857 का महान विद्रोह था जिसका नेतृत्व रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, अजीमुल्ला और नाना साहब ने किया था। विद्रोह की विफलता ने भारतीय बुद्धिजीवियों को सशस्त्र प्रतिरोध की प्रभाव-शून्यता से अवगत कराया। 19वीं शताब्दी के आख़िर में और उसके बाद, राजनीतिक परिदृश्य ने एक नया मोड़ लिया। विलंबित और असंतोषजनक ब्रिटिश सुधारों, 'फूट डालो और राज करो की नीति के अनुसरण और अत्यधिक दमन से उत्पन्न निराशा ने बंगाल और महाराष्ट्र में राष्ट्रीय आंदोलन को चरम पर पहुंचाने का काम किया। इस आंदोलन के नेता लोकमान्य तिलक, अरबिंदो घोष, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अन्य आंदोलनकारी नेता थे। गांधीजी ने 1919 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक ब्रिटिश शासकों के खिलाफ अखिल भारतीय चरित्र के पांच आंदोलन शुरू किए। इन आंदोलनों को 1919 और 1921 तक असहयोग आंदोलन, 1930 और 1932 तक सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 में ''भारत छोड़ो आंदोलन’’ के रूप में जाना जाता है। अगस्त 1942 के 'भारत छोड़ो’ प्रस्ताव ने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मोड़ को चिह्नित किया। गांधीजी ने इसे 'अंग्रेज़ों की भारत से सभी ग़ैर यूरोपीय व्यवसायों से वास्तविक रूप में और पूरी तरह तत्काल वापसी के तौर पर उल्लेखित किया। आंदोलन की रणनीति बनाने से पहले ही गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया था। जैसाकि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में बताया है, उन्हें अपनी गिरफ्तारी की उम्मीद नहीं थी और उनका मानना था कि 'ब्रिटिश जापानियों के भारत के दरवाजे पर दस्तक देने के साथ कोई भी कठोर कदम उठाने से हिचकिचाएंगे। उन्होंने सोचा कि इससे कांग्रेस को एक प्रभावी आंदोलन संचालित करने का समय और अवसर मिलेगा. (शब्दों की सं. 304)
- Sunil Bhutani 'Rudraksha'
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